अनायास ही लोग पूछते हैं,
क्या दिन के चार शब्द ही बोलता है,
उसका काम जवाब देना नहीं,
वो तो अंतरमन की पीड़ा को टटोलता है।
महफिल तो अमीरों के मौज हैं,
वो बस सूने कोनों में दिखता है,
कलम मे उसके स्याही हो,
वो कागज़ की कीमत लिखता है।।
मन में जो बातें चुभती हैं,
पन्नें ही उसका निशाना है,
ये बुढ़ी धरती माँ है,
इसका दुखड़ा उसका फसाना है।
पर इसके शब्दों का मोल कहाँ,
ये तो बस कौड़ियों में बिकता है,
कलम मे उसके स्याही हो,
वो कागज़ की कीमत लिखता है।।
बातें उसकी समय से परे हैं,
समय का दर्द कौन सहलाना चाहेगा,
किसमे इतनी हिम्मत जो,
भरे बाजा़र पागल कहलाना चाहेगा।
अकेला ही छोड़ दो उसे,
अकेले ही दुनियादारी सिखता है,
कलम मे उसके स्याही हो,
वो कागज़ की कीमत लिखता है।।
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आपके शब्दों में उस कवि की दास्तान बयान की गयी है जो अपने आसपास के जीवन को देखता है और बगैर किसी लालच के जन जन की पीड़ा को कलमबद्ध करता है. अच्छी कविता है. धन्यवाद. ये बुढ़ी धरती माँ है, इसका दुखड़ा उसका फसाना है।
bahut bahut dhanyawaad.