गर बन पड़ता मुझसे Poem by GULSHAN SAHU

गर बन पड़ता मुझसे

गर बन पड़ता मुझसे,

तो तेरी भी खै़र कर लेता,

पर अब कैसा आलम है ये,

के नज़रें चुरानी पड़ती है।

गर बन पड़ता मुझसे,

तो तुझे बाँहों मे भर लेता,

पर अब कैसा आलम है ये,

के मोहब्बत छुपानी पड़ती है।

अनकहे फासलें हैं दर्मियाँ,

यूँ ही बढ़ाता चला गया,

दर्द ये दिलों के मैं,

जा़म में डुबाता चला गया।।



शौक नहीं है पीने का,

बस बेवफाई भुलाना चाहता हूँ,

जो मिल जाए कभी रास्ते,

तेरी यादें सुनाना चाहता हूँ।

पर अब कैसा आलम है ये,

के तकरार की दरकार है तुझसे,

बिछा देता राहों पे काँटे तेरे,

गर बन पड़ता मुझसे, गर बन पड़ता मुझसे।



जु़ल्फों में तेरी मेरी,

शामें गुज़रा करती थी,

महकी हुई दिवाली थी,

जहां खुशियाँ मुजरा करती थी।

बस बातें हैं लोगों की अब,

मैं पागल कहलाता चला गया,

दर्द ये दिलों के मैं,

जा़म में डुबाता चला गया।।

-गुलशन साहू

Sunday, October 30, 2016
Topic(s) of this poem: romanticism
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success