Complacent Poem by GULSHAN SAHU

Complacent

विकास हो न सकेगा
पैसों से मौज करते रह जाएंगे,
स्वच्छता अभियान करा लो जितने
खुले में शौच करते रह जाएंगे,
कदम उठाने का जज़्बा हम में भी है
हम भी बदलाव ला सकते हैं,
बंजर पड़े इस विधान में
जागरूकता के पौधे उगा सकते हैं,
पर हम तो आम हैं और चार दिन का जीना है,
चकना दीला दो हमें, हमें तो बस पीना है।।


विदेशों में दीया जला लेंगे
पर खुद के घर अंधेरा है,
आग बुझाने चले परायों के
पर घर आतंक का डेरा है,
बच्चों के लहू से
आज माताएँ तड़पती है,
बस एक ही तो होना है हमें
के संगठन की शक्ति है,
पर हम तो आम हैं और चार दिन का जीना है,
चकना दीला दो हमें, हमें तो बस पीना है।।


लड़ लिए कश्मिर के लिए
ऐहसासों को तोल कर,
मार दिए बुढ़े बच्चे
धर्म का नाम बोल कर,
यूहिं मरते रहेंगे लोग
गर हमनें कुछ ना किया,
बदल सकते दुनिया हम भी
गर इंसानियत का नाम लिया,
पर हम तो आम है और चार दिन का जीना है,
चकना दीला दो हमें, हमें तो बस पीना है।।


मोमबत्तियॉं पिघल गई सारी,
पर चीखें आज भी दहलाती है,
इंसाफ सिमट गया कोने में
यही बात तड़पाती है,
इंकलाब उबल रहा रगों में
बस देशभर में फैलाना है,
पर हमें क्या मतलब है इससे,
इतवार का मज़ा उठाना है,
हम तो आम है और चार दिन का जीना है,
चकना दीला दो हमें, हमें तो बस पीना है।।
-गुलशन साहू

Tuesday, August 23, 2016
Topic(s) of this poem: patriotism
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