जमीन से जुड़े रहना पड़ेगा Poem by GULSHAN SAHU

जमीन से जुड़े रहना पड़ेगा

मैं वो सुलगती आग हूँ,

आवाम की रगों मे जो बहता है,

मैं वो कलकल बहता पानी हूँ,

पत्थरों से टकरा कर जो कहता है।



के चल-अचल निश्चित कहाँ,

के पापी अब भयभीत कहाँ,

के संग्राम मे अब कायरता है,

कोयल की आजादी का गीत कहाँ।



चली गई आत्मीयता लोगों की,

चला गया वो जमाना कहाँ,

सुलगा करते थे जिगर मे जो शोले,

इस हंगामे मे वो फसाना कहाँ।



कहाँ मिलेगी वो देशभक्ति पुरानी,

जो सीना चीरकर आजादी मांगती थी,

रक्त रंजीत थे काँटों से पैर मगर,

दिन ब दिन जो सीमा लांघती थी।



मैं नहीं कहता तू कोई भगत है,

ना मुझे पटेल सी आग चाहिए,

पकड़ मशाल चल मंजिल की ओर,

मुझे उस गरीब की रोटी मे साग चाहिए।



मुझे वो सती की वीरता चाहिए,

जिसका दामन पकड़े शोले भभकते थे,

मुझे सावरकर का वो चरित्र चाहिए,

कारागार के भीतर जिनके आँख चमकते थे।



अब जब जरूरत अपनी चोटी पर है,

तो दांडी तुझे भी चलना पड़ेगा,

उठकर गिरे तो गिर कर उठेंगे,

ये वक्त तुझे बदलना पड़ेगा।



उड़कर आजादी मांगना फिज़ुल है,

जुड़े रहना पड़ेगा, जमीन से जुड़े रहना पड़ेगा।



मैं उस आँचल की गर्मी हूँ,

ममता मे जिसके आक्रोशी पलते हैं,

मैं उस लहु की नर्मी हूँ,

रणभूमि की शाम जिसमे ढलते हैं।



हँसकर मरने वाले वो लोग कहाँ,

भक्ति जपने वाले वो जोग कहाँ,

लहु अब पानी सा बहता है,

पर लोगों मे देशभक्ति का वो रोग कहाँ।



कहाँ गए वो बंदी परिंदे,

आँखों मे जिनके आकाश था,

बीते पल के वो नेता कहाँ,

हर कदम मे जिनके विकास था।



कहाँ गई वो दिए की रोशनी,

अंधेरों में जिसकी ओर बढ़ते थे,

बीते पल के वो संग्रामी कहाँ,

जान देकर जो देश के लिए लड़ते थे।



नहीं चाहिए मुझे गांधी-नेहरू,

तुझमे उनका जीवन झलकता है,

अब जो दौड़ गया तो रूकना नहीं,

के तेरी छाती मे मेरा दिल धड़कता है।



क्रांति की जो लहर चली है,

हर पापी इसमे सड़ेगा,

उठकर गिरे तो गिर कर उठेंगे,

ये वक्त तुझे बदलना पड़ेगा।



उड़कर आजादी मांगना फिज़ुल है,

अब तुझे हिम्मत से अड़े रहना पड़ेगा,

जुड़े रहना पड़ेगा, जमीन से जुड़े रहना पड़ेगा।



मैं उन लम्हों का ठिकाना हूँ,

जो इतिहास के पन्नों में जगह पाते हैं,

मैं उन परिंदों का फसाना हूँ,

जो दुसरों की तमन्ना मे जगह पाते हैं।



अब उस तमन्ना मे वो बात कहाँ,

और कहाँ है उसकी खिलखिलाहट,

कर गुजरने की वो चाह कहाँ,

आजादी पर जाती वो राह कहाँ।



कहाँ है वो शहादत की ओर बढ़ते कदम,

और बढ़ती हुई वो मुद्दते कहाँ,

गरीबों पर वो मेहरबानी कहाँ,

देश पर लुटने के लिए वो जवानी कहाँ।



ना आजाद की लीला चाहिए,

और ना अच्छे दिनों का विश्वास,

दिखा दो केवल आशा की चिंगारी,

रगों मे बहता इंकलाब का प्यास।



दौड़कर हाथ थाम ले मेरा,

के मेरी मंजिल वो शाम है,

पहुँच जहाँ थमेंगी साँसें,

जहाँ वतनपरस्त को आराम है।

तू चल क्रांति की उस लहर मे,

गंगा का जल जो पाप पर पड़ेगा,

उठकर गिरे तो गिरकर उठेंगे,

ये वक्त तुझे बदलना पड़ेगा।



उड़कर आजादी मांगना फिज़ुल है,

बस हिम्मत से अड़े रहना पड़ेगा,

जुड़े रहना पड़ेगा, जमीन से जुड़े रहना पड़ेगा।



इतनी मेरी बातें और मेरे इतने रूप,

पहचान सका जो मुझको ठंड मे जैसे धूप।

इतनी मेरी साखें और मेरे इतने प्रकार,

पहचान सका जो मुझको तो बदले तेरे विचार।

इतनी मेरी मुरादें और मेरे इतने साथी,

पहचान सका जो मुझको तो मिल जाए आजादी।

…तो मिल जाए आजादी।

-गुलशन साहू

Sunday, December 11, 2016
Topic(s) of this poem: patriotic
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success