आंखे तलाशती हैं, सदियों से एक नई सुबह,
पा कर भी गवां देना, ये कैसी फितरत है!
आफताब का उदय तो हर सम्भव निश्चित है,
उजाला फैलाना ही तो इसकी बस किस्मत है।
भटकते हो क्यों अंधो की तरह, अंधेरे में,
सीधी राह पर चलने की, क्यों नहीं हसरत है?
क्यों झूठी शान का लबादा ओढ़े यूं खड़े हो?
तुम्हें मुझसे प्यार नहीं नफरत ही नफरत है ।
क्यों तुम्हें अपने यक़ीन पर विश्वास नहीं है,
तुम्हे डर है और ये ड्रामा भय का कसरत है ।
एक सलाह देता हूं तुम्हें, ऐ भटके हुए ईंसान,
तू मुझे समझ, मेरा यक़ीन एक बेहतरीन इबरत है।
आंखे तलाशती हैं, सदियों से एक नई सुबह,
पा कर भी गवां देना, ये कैसी फितरत है!
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