***दुविधा*** Poem by sunil shukla

***दुविधा***

ये सोच के हम निकले थे घर से, एक दिन वापस घर होंगे!
जब वापस हम आयेगे, दिन अपने भी सुंदर होंगे! !

फिर वही बागों, नदियों मे, टोली संघ मस्ती होगी!
होली-ईद-दीवाली की, रौनक भी अपनी होगी! !

पहुच गये हम सहर, लिए कुछ सपने पूरे करने को! .....
९ से ५ जो सुरू हुए थे, ९ से १२ पहुच गये!
दिन ओफिसे मे गुज़रे अपने, रात को पब मे पहुच गये! !

हर ओर उज़ाले पसरे थे, मेरे भी चस्मे उतर गये!
चकाचौंध ऐसी देखी, के गावों की गलीया भूल गये! !

जो सपने लेकर आए थे, न जाने कब बदल गये!
कुछ पैसो से सुरू हुए, गाड़ी बंगलों मे पहुँच गये! !

कुछ सालों को आए थे हम, सालों-साल अब गुज़र गये!
न ज़ाने कितने अपने भी, गाँव मे अपने गुज़र गये! !

इक दिन सोचा लौट चलें हम, फिर दुविधा मे फँस गये!
जो भी यहाँ कमाया हमने, सारे यही तो लग गये! !

क्या बचा है पास हमारे, जो हम ले कर ज़ाएँगे!
कब होगी ये दुविधा दूर, कब हम वापस ज़ाएँगे! ! ..



कब हम वापस ज़ाएँगे? .. कब हम वापस ज़ाएँगे?

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