माटी के मकान Poem by sunil shukla

माटी के मकान

माटी के मकानों में लोग मस्त रहते थे, और माटी से जुड़े रहते थे

मन भी माटी से कोमल थे..

धूप, छाओं और बरसात का आँगनमें मज़ा लेते थे

घर के बाहर से लोग आवाज़ लगाकर बुलाते थे, और आवाज़ सुनकर, सब उसे पहचान जाते थे

चारपाई और तख्त घर की शान थे, चाहे बैठें या लेटें, सब आराम के सामान थे

मेहमान को गुड़-पानी पिला देते थे,बहुत हुआ तो नींबू का शरबत बना देते थे

मेहमान भी हफ्ता - दस दिन रुकते थे

लोगों से इतनी मिठास और अपनापन मिलता, कि जाते समय पलकें भिगोते थे

अब ज़माना बदल गया है...

माटी के मकान अब पत्थर के हो गये हैं

जिसमेंपत्थर की तरह अब मन भी सख्त हो गए हैं

आँगन का मतलब बच्चे तो क्या बड़े भी नहीं जानते हैं

अब वो दो - तीन कमरों केफ्लैट की बालकनी से झाँकते हैं

"ॐ जय जगदीश हरे " की डोर बेल लगाते हैं

अगर कोई बजाये, तो "अब कौन आया " बड़बड़ाते हैं

मेहमान अगर "फाइव सीटर सोफे" में समां जायें तो ठीक, नहीं हो माथे पे बल पड़ जाते हैं

ग़र्मी हो या सर्दी सबसे पहले चाय पिलाते हैं …

सजावटी "ड्राइंग रूम" में बनावटी बातों से समय गवाँते हैं

"अरे आज रुकिए" कहते हैं, और कहीं रुक न जाये घबराते हैं

मेहमान भी सब समझते हैं, इसी लिये, चाय - पानी के बाद "अब चलते हैं" की रट लगते हैं

बारात भी अब होटल और गेस्ट हाउस में बुलाते हैं, जिसमे मेहमान भी औक़ात वाले ही आते हैं

शादी - ब्याह में अब लोग उपहार देने में भी शर्माते हैं

क्यों की उपहार से ज्यादा की कीमत के "रिटर्न गिफ़्ट" दिये जाते हैं

इतनी तेजी से तो हड़प्पा संस्कृति के लोग नहीं बदले

जितनी जल्दी पत्थर के मकानों में लोग बदल जाते हैं

हम लोग "माटी के इंसान " हैं ये क्यों भूल जाते हैं, कि पत्थर से सिर्फ क़ब्र बनाये जाते हैं

पत्थर के घर में रह के माटी और अपनों से दूर मत होना,

जरूरत पड़ने पर सिर्फ माटी और अपने ही काम आते हैं

Monday, November 19, 2018
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