कभी मेरी भी महफ़िल में,
सजा था खुशियों के दीये,
उठा इक जोर की आंधी,
वो दीया बुझाया था।
मेरे हस्ते से चेहरे में,
कभी तुम गौर मत करना,
रुलायेगा तमको भी वो,
जिसे इसमें छुपाया था।
जब अपने ही मित्रो ने,
घुसाया पीठ में खंजर,
अपने ही लोगो ने जब,
अपना हाँथ छुड़ाया था।
मुझे तो भीड़ में भी अब,
लगे जैसे अकेला हू,
अपना कह के मुझको जब,
पराया बनाया था।
खुश हूं मैं अब भी,
बस इस बात को लेकर,
कुछ झूठे पल ही सही उसने,
मेरा साथ निभाया था।
अरे, जब राम न बचपाये,
मेरी औकात ही क्या थी,
इस जालिम सी दुनियां ने,
जब उनको भी रुलाया था।
शशि शेखर सिंह
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