दहेज़ प्रथा Poem by Shashi Shekher Singh

दहेज़ प्रथा

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जल रहे चिते से निकली इक आवाज़,
जिसको सुन ले ये पूरा समाज,

गाँव में इक अबला नारी थी,
सकल सूरत से प्यारी थी,
खुश थी अपने छोटे घर में,
माँ बाप की राजदुलारी थी,

भाई की चंचल गुड़ियाँ हैं,
दादा की नटखट पड़ी हैं,
वो प्यारा चेहरा मुस्कुराता हर घड़ी हैं

उम्र के हर पड़ाव पर,
सुंदरता निखर रही थी,
उसकी हँसी से हरजगह,
खुशियाँ बिखर रही थी,

खुशहाल बीत रहा था,
उसका हर दिन रात,
अचानक चली घर में,
उसकी शादी की बात,
धूमधाम से घर में उसके,
तब आयी बारात,
मनो रेगिस्तान में आज,
हो रही बरसात।

आगे सुन लो क्या हुआ,
उसकी शादी के बाद,
दादा की पारी गुलाम हो गयी,
बर्षो आजादी बाद।

वो चंचल गुड़ियाँ,
पिंजरे में बंद हो गयी।
जिंदगी उसकी मनो,
मैदान-ऐ-जंग हो गयी।
दहेज़ प्रतारणा से दुलारी,
बहुत ही तंग हो गयी।
उसकी सहंसक्ति भी मनो,
अब तो भंग हो गयी।

गोद में खेलती बच्ची को,
आज वो भूल गयी।
अपनी साड़ी को फन्दा बना,
फंखे से वो झूल गयी।

उस नन्ही बच्ची की,
दुनियाँ अब आवाज़ सुनो।
मैं नहीं तुम नहीं,
ये पूरी समाज सुनो।

वो बोली उसकी आवाज आज,
सब तक पहुचानी पड़ेगी।
क्या मुझ जैसी बेटियाँ भी,
आगे ऐसे ही मारेंगी।
मुझे दहेज़ प्रतारणा नहीं,
मुझे भी प्यार दो,
अगर दे न सकते इतना मुझे,
तो माँ की तरह ही मार दो।

शशि शेखर सिंह

Saturday, January 28, 2017
Topic(s) of this poem: baby,child,childhood,children,culture,daughter,death,dream,faith,family
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Shashi Shekher Singh

Shashi Shekher Singh

Lakhisarai, Bihar
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