कभी ऐसा लगता है अटूट हूँ किसी परिंदे की तरह उड़ु,
और कभी कभी डर की राख आँखों में चुभ जाती है,
कभी ऐसा लगता है कि मकाम मेरा सोच से परे है,
और कभी कभी शुरुआत मे ही चालें ठिठक जाती है।
घड़ी के काँटों में धसी समय यूँ ही बूँद बूँद पिघलती है,
कल्पनाओं की आरियाँ हैं ये मिथ्या को काटती चलती है
कभी ऐसा लगता है चालें मेरी मिट्टी में अटकती है,
और कभी कभी इसकी खुशबू फेफड़े तर कर जाती है,
कभी ऐसा लगता है जो हो अब आगे बढ़ना है,
और कभी कभी पुरानी बातें आँखें नम कर जाती है।
आलस में डूबी सूर्यकिरणें आहिस्ता आहिस्ता ढलती हैं,
कल्पनाओं की आरियाँ हैं ये मिथ्या को काटती चलती है
कभी ऐसा लगता है मटमैले कपड़े पानी से धुल जाएंगे,
और कभी कभी नहीं मिट पाती हैं खून की ये छिंटें,
कभी ऐसा लगता है कैसे मजबूत होंगी दिवारें,
और कभी कभी नफरत से चिपक जाती है ईंटें।
गिर गिर कर ये मासूम जान अपने आप सम्हलती है,
कल्पनाओं की आरियाँ हैं ये मिथ्या को काटती चलती है
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कभी संशय, कभी निश्चय, यही जीवन में होता है. बहुत सुंदर विचार आपने इस कविता में पिरोये हैं, मित्र. कभी ऐसा लगता है कि मकाम मेरा सोच से परे है, और कभी कभी शुरुआत मे ही चालें ठिठक जाती है। कल्पनाओं की आरियाँ हैं ये मिथ्या को काटती चलती है