साज चुक जाता है Poem by Dr. Ravipal Bharshankar

साज चुक जाता है

खुद ही से तलब होने का अंदाज चूक जाता है
है गीत मेरी आँखो में, पर साज़ चूक जाता है

जाग जगाए रहता हुँ, और देखते रहता झाँसो को
घात लगाए रहता हुँ, और जागते रहता साँसो को
आगाज़ होते ही लेकिन, परवाज चूक जाता है
है गीत मेरी आँखो में, पर साज़ चूक जाता है…१

बाते करती बातो को, मंसूख़ मै करते रहता हुँ
चाले चलती लातो को, बेरुख़ मै करते रहता हुँ
बाजी लगाए बैठा हुँ पर, बाज़ चुक जाता है
है गीत मेरी आँखो में, पर साज़ चूक जाता है…२

इंसान जनम भी लगता है, सुनसान सनम के जैसा है
बरबात करेगा जो इस को, झोली में उसके पैसा है
आबाद होनेवाला भी, शाहबाज़ चुक जाता है
है गीत मेरी आँखो में, पर साज़ चूक जाता है…३

Tuesday, December 30, 2014
Topic(s) of this poem: love
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