साहस Poem by Shobha Khare

साहस

धीरज धरो, न छोड़ो साहस
होने वाली है अब जय
अंधकार छटने वाला है
स्वय भाग जाएगा भय

संशय आलस और हताशा
निश मे ही दुख देते है
ज्यो ही हो जाता है प्रभात
हो जाता है इन का छय

आओ तम से बाहर आओ
नभ की ओर निहारो तुम
फूट रही है प्रभा निरंतर
प्राची लगती ज्योतिर्मय! !

Sunday, August 31, 2014
Topic(s) of this poem: Life
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