अकेला Poem by Tarun Badghaiya

अकेला

Rating: 5.0

कहीं मैं खुद ही खुद में खो न जाऊ
पीर बहुत हो दिल मे पर रो न पाऊ।
अनायास ही बैचैन रातो में सो न पाऊ,
गुज़रिश है ये खुदा से की तुझसे ऐसा मिलु,
की किसी प्यासे के लिए फरिश्ता हो जाऊं।।

कभी मैं खुदसे बिगड़कर सोचता हूं
कभी पागल सा खुद ही खुद को रोकता हूं।
थक चुका हूं तेरी इन दिलाशा भारी बातो से,
जबसे नाता टूटा है उन प्यारी रातों से।।

कभी मैं अपने हृदय के आंसू पोछता हूं,
कभी मैं अपने को अपने में ही खोजता हूं।
अब ये हिस्सा बन गया है मेरी हर रातो का,
लगता है तरुण किस्सा बन गया है तेरी प्यारी बातो का।।

✍️तरुण बड़घैया📖

अकेला
Monday, April 13, 2020
Topic(s) of this poem: life and death,love
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