बेताब परिंदा Poem by Tarun Badghaiya

बेताब परिंदा

Rating: 5.0

बेताब परिंदा तरुण

एक पंछी को खौफ लिए उड़ते देखा
बेताबी आसमान में किंदरते देखा।।
शायद भूख थी थोड़ी आखो से बेताब था,
शायद बड़ी जोर से चोट लगी थी उसे, बस अब वो दो पल का मोहताज था।

हिम्मत लिए पंखो में, जोर से दौड़ा,
देखा मेने पैरो से डालो को जोर से छोड़ा।।
आखो में आंसू लिए खूब दूर तक दौड़ा,
रीत निभाने दुनिया की अपनो को तक के छोड़ा।

दौड़ दाना पाने की आखों तलक रुबाई,
आश घर जाने की पर दस्तूर तो है जुदाई।
आश भुख मिटाने की, जिंदगी में है रुसवाई,
उड़ना जरूरी है, किसी दूसरे परिंदे ने कानो तलक सुनाई।

यह सुनकर आंखों में चमक सी आ गयी,
मिलो तक उड़ने की ताकत सी आ गयी।
ललाट मुखपृष्ठ, नैनो में खुशी थी उस दिन,
दुनिया की मांझे में फसकर गुजर गया उस दिन।।

📖तरुण बड़घैया✍️

Monday, November 5, 2018
Topic(s) of this poem: love and dreams
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