ख़ाक (KHAK) Poem by Nirvaan Babbar

ख़ाक (KHAK)

ज़मीं है यार दोज़क ये, कहाँ गुलज़ार होती है,
लम्हों कि ये कहानी है, पलों मैं ख़ाक होती है,

हवा के पुलिंदों पर, हवा से तस्वीर बुनते हैं,
हवाओं की ही तेजी से, तस्वीरें हवा हो जाती हैं,

निर्वान बब्बर

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