फांसले (Differences) Poem by Pawan Kumar Bharti

फांसले (Differences)



दबे दिलों मे अब भी, कई राज भी हैं!
ग्रस्त कई रोगों से ये समाज भी है! !
यूँ तो कहने को मिट गयी हैं दूरियाँ मगर!
फांसले कल भी थे फांसले आज भी हैं! !
मुफ़लिसी मे आज भी कट रही हैं कितनी रातें!
ठिठूरा देतीं हैं सर्दियाँ, रुला रही हैं बरसातें! !
मिटा सका ना कोई अमीर-ग़रीब का फांसला,
दरमियाँ कल भी था दरमियाँ आज भी है! !
फांसले कल भी........
दहेज वेदी पे सिसकियाँ भर रही हैं बेटियाँ!
पैदा होने से पहले ही मर रही हैं बेटियाँ! !
बेटा-बेटी एक समान ये लिख तो दिया,
पर अंतर कल भी था अंतर आज भी है! !
फांसले कल भी.....

Thursday, May 22, 2014
Topic(s) of this poem: society
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
This is the bitter but true story of our society. There are a lot of partiality and differences in people. It will focus on few of these issues.
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