आतंकवाद और उसका मज़हब (Terrorism and its religion) Poem by Pawan Kumar Bharti

आतंकवाद और उसका मज़हब (Terrorism and its religion)

राक्षस रूप मे पहले भी, हालाँकि रहते थे उन्मादी!
आधुनिक दौर मे मगर, वो कहलाते हैं आतंकवादी! !
क्यूँ पूछते हो कि आतंकवादी का क्या मज़हब है!
कौन है उसका ईश्वर, अल्लाह, जीसस या रब है! !
जो भरा गया जेहन में, उसके सिवा कुछ जानते नही!
यही वजह की अपनी ग़लती को ग़लती मानते नही! !
क्या खाक जन्नत हासिल होगी, तुमको मरने के बाद!
मासूमों का कत्ल करते हो, और मज़लूमों को बर्बाद! !
जाने क्यों बाकी मुल्कों को भी कब्जाने को कहते हो!
मगर नरक बना रखा है, जहाँ पे अभी रहते हो! !
ज़्यादातर को पता नही, क्या है जीने की राह!
क्यों नही कहलाएगा फिर ऐसा मज़हब गुमराह! !
रट रखी हैं चीज़ें बस, फिर कैसा वो दीनो-ईमान!
कैसा मज़हब है कि, इंसान को ही मारे इंसान! !
आख़िर क्यों कर रहे हैं ऐसा, वजह भी नही पता!
क्या कसूर था उन बच्चों का, क्या थी उनकी खता! !
क्यों उन मासूमों पे तुम्हे, ज़रा रहम ना आया!
तुम्हारे मज़हब ने तुम्हे, रहम भी ना सिखाया! !
कुछ लोग बेवजह इनको, देते रहते हैं पनाह!
इस वजह से ही फिर, मारे जाते हैं बेगुनाह! !
कभी-कभी शिकारी भी खुद जाल मे फँस जाता है!
बिच्छू को सहला लो भले, मगर डस जाता है! !
सब कुछ जला डालती है, ये नफ़रत की आग!
तेरे अपनों को ही खा गया, तेरा पाला नाग! !
क्यों थोपते हो जिहाद की बेड़ी, 'पवन' वो तो बच्चे हैं!
तुम्हारे मज़हब से तो यूरोप के नास्तिक ही अच्छे हैं! !

Monday, December 22, 2014
Topic(s) of this poem: terrorism
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This is a strong reaction on Peshawar terrorist attack.
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