प्रकाश Poem by Shobha Khare

प्रकाश

तू ही बाती दीप तू, तू ही स्वयं प्रकाश
बर्तमान मे जिए जा, छू लेगा आकाश
कर के हजार कोशिशे अगर मिली है हार
रब मर्जी समझकर, कर लेना स्वीकार
हार मिली तो मै कभी, हुई न गम से चूर
जो उसको मंजूर है, वह मुझको मंजूर
आंखो मे आँसू रहे, होठो पर मुस्कान
ये ही पूजा है मेरी, यह ही मेरा ध्यान
आज पढ़ा कल हो गया रद्दी यह अखबार
जो छापते है हर्द्य पर, वो है सदावहार II

Thursday, April 23, 2015
Topic(s) of this poem: life
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