वक्त Poem by Tarun Badghaiya

वक्त

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वक्त

इधर का रहा न उधर का रहा,
वो भी इस कदर छुटी जनाब, बस अधर ही रहा ।
वक्त भी था मुठ्ठी भी थी, पिझरते रहा,
समझा नही, क्या करता बस लोगों को निटोरते रहा।।।

हाथ जोड़ खडा रहा वो भी चले गई,
एक पल दुसरा ख्वाब आखों मे सँजो गई ।।
एक दिन था हाथो तलक वक्त था अनाब,
आचल था माँ का, पिता की डाट थी जनाब ।।।

लोगों ने बहुत कुछ सिखाया,
एक पल गिरा, लात मार औऱ जोर से गिराया।।
एक पल आखों से आ हाथों मे आसिमटा, ,
वो भी तैयार खडी थी डाल कर घुँघटा ।।।।।

उसने भी क्या खेल दिखाया, ,
हर पल कुछ नया सिखाया ।।

बालू (रेत)पर बैठकर, उसको हाथों तलक उठाया, दबाया, ,
वो भी वक्त था जनाब दोस्त जैसा,
दुनिया जैसा उसने भी रँग दिखाया।।।

📖तरुणबडघैया🖋

वक्त
Saturday, March 10, 2018
Topic(s) of this poem: time
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
its a story of all and based on true story of my life
COMMENTS OF THE POEM
Kumarmani Mahakul 10 March 2018

They dropped a moment, kicked and thrown loudly.A moment of relief from the eyes in the hands was captured from emotion. People taught many things. Learning every aspect from every happening is wise. Sitting on the sand that time was perceived. That time was really a friend. An amazing and brilliant poem is excellently penned...10

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