हे पथिक! चलते रहो तुम
क्यों थकन से चूर हो
हौसला ना छोड़ना
चाहे मंजिल दूर हो ।
जैसी भी राहें मिले
उबड़ खाबड़ या सपाट
कदम दर कदम तेरा
जोश भर पूर हो
साथ ऋतुएँ दे तेरा या
बीच में ही छोड दें
दृढ मन के साथ चल तू
ना कभी मजबूर हो ।
जो बदा है भाग्य में
बदल उसे पुरुषार्थ से
कर वही और हो वही
जो तुझे मंज़ूर हो ।
अनवरत प्रयत्न कर
न कभी ठहराव हो
लेकिन उस में आस्था
कुछ मन में भी जरूर हो
पर देखना इस राह में
धर्म न छूटे कभी
वृक्ष जैसी हो सरलता
न कभी मगरूर हो ।
मन वारिधि सा शांत हो
तन हो ज्यों चंचल नदी
पर देखना उनका मिलन
एक दिन जरूर हो ।
अनूप कुमार शर्मा
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very inspiring poem provoking the heart to be peaceful loved and liked