दुनिया को करके महफ़िल
बन जा तू शम-ए-फरोज़।
इन नापाक अंधेरों के बर-अक्स
एक चाँद बहुत कम है।।
फ़ना कर सबब-ए-परेशानी
मुस्कुराहट की बन नज़ीर।
यहाँ संजीदगी के वाइस
पहले ही बहुत ग़म हैं।।
तूफां से जाके कह दो
न उजड़ेंगे ये दरख़्त।
ईमान की रगों में
अब भी बहुत दम है।।
धुंधली हुई नज़र में
न रहा दोस्तों-रकीबों का फर्क।
जज़्बातों के ज़लज़ले से
आज आँख बहुत नम है।।
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last 2 lines are very captivating! good one