कभी वो अपनी ज़ुल्फ़ों से खेलते हैं Poem by Talab ...

कभी वो अपनी ज़ुल्फ़ों से खेलते हैं

कभी वो अपनी ज़ुल्फ़ों से खेलते हैं
कभी वो मेरी तक़दीर से खेलते हैं

चेहरे पर शिकन नज़र आती नहीं फिर भी
दर्द के हलके साये ज़रूर खेलते हैं

आओ चलो अपने बचपन मे हम फिर से
आओ चलो फिर मिल झुल कर खेलते हैं

बाज़ार मे कहाँ बिकता है ये खिलोना
सो हर रोज़ वो मेरे दिल से खेलते हैं

तेरे गेसू जो पिरोये अपने हाथों पर
मुक़द्दर पर काले बादल से खेलते हैं

खुदा तेरा भगवान् है मेरा फिर सोचो
क्यों ये लहू की होली हम खेलते हैं

कैसी ये तेरी ग़ज़ल की राणाई तलब
सुख़नवर और अल्फ़ाज़ों से खेलते हैं

शिकन = crease, furrow
राणाई = Grace, beauty

Wednesday, April 5, 2017
Topic(s) of this poem: love and life
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 05 April 2017

राणाई की जगह रानाई होना चाहिए और अल्फाज़ों की जगह अल्फाज़. अच्छी ग़ज़ल है.

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