राही Poem by Vivek saswat Shukla

राही

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भूख प्यास सब त्याग सदा,
चलता राही राहों पर, ,
चलता है खुद का शव लेकर,
राही अपने कंधों पर।
स्वयं स्वयं में विलीन होकर,
अंत ढूंढने चलता है।।
निकल शून्य से,
राही शून्य में ढलता है।
मृत्यु प्रतीक्षा में राही,
राहों पर अपनी चलता है।।

कभी कदा जो रुक जाऊं,
तो खुद को माफ करूं कैसे।
हुए शांत मन के भीतर,
मंजिल की आस भरूं कैसे।।
विषम परिस्थिति देख राहो की,
मन मेरा विचलित होता है।
कहता मन अब पथ को छोड़,
निद्रा स्वप्नों में खो जाऊं मैं।।

सारे दुर्लभ काजों को छोड़,
मन भीतर एक प्रेमदीप जलाऊं में।
अपने अंतर्मन में राही,
प्रश्नों में उलझा रहता है।।
मृत्यु प्रतीक्षा में राही,
राहों पर अपनी चलता है।
मृत्यु प्रतीक्षा में राही,
राहों पर अपनी चलता है।।

~विवेक शाश्वत

राही
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