पार्थगाथा Poem by Vivek saswat Shukla

पार्थगाथा

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पार्थगाथा
प्रातः हाथी सजे हुए थे,
घोड़े कुछ घबराए थे, ,
मानो रणभूमि मध्य स्वयं यम,
कौतूहल करने आये थे।

रक्तपिपासी तलवारें,
गर्दन को देख रही थी, ,
धरा रक्त पीने को,
माधव से आज्ञा मांगी रही थी।।

एक पक्ष में गुरु पिता,
संबंधी सारे थे, ,
पक्ष दुसरे में कुछ,
समय से हारे थे।

शून्यमध्य हो रही गर्जना,
शेषनाग अब डोल रहे, ,
अवनि डोल रही है अब,
पर्वत भी है कुछ बोल रहे।।

कुरुक्षेत्र का दृश्य देख,
अर्जुन की आंखें भर आयी, ,
भाले चमक रहे शत्रु के,
रक्तपात को तलवारें भी चिल्लाई

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