जहां उम्मीदें नहीं धुलती हों चीखों की तरह Poem by Aftab Alam

जहां उम्मीदें नहीं धुलती हों चीखों की तरह

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दिल नही लगता अब इस चमन में,
तितलियां नहीं अब मौत उड़ा करती हैं,

थक कर सो गये थे हम ख्वाब के लिये,
डरावनी ख्वाब मुझे क्यों और सुला गई?

ये आसमान छुती हैवानियत और हम,
खून से लिपटा इंसानियत और मसूमियत,

चरागों की खामोशी और मन का अंधियारा
लहूलुहान है आज इंसानियत का गलियारा

डूबा सुरज प्रतिदिन फिर से उदय तो होता है,
ना जाने वो कोने में रात-दिन क्यों रोता है?

शायद कहीं कोई जगह तो होगी इस ज़मीन पर,
जहां उम्मीदें नहीं धुलती हों चीखों की तरह

Saturday, December 20, 2014
Topic(s) of this poem: poem
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Aftab Alam

Aftab Alam

RANCHI,
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