मजबूरी Poem by Sushil Kumar

मजबूरी

हुजूर, माई-बाप,
ये क्या जुल्म ढ़ा रहे हैं आप।
हम दलित हरिजन,
आप का क्या ले रहे हैं.
हम गरीबों की बस्ती,
आप क्यों जलाए दे रहे हैं?
पुलिस वाले गुर्राए,
किसी को गालियाँ दीं,
किसी पर डंडे बरसाए.
चुप रहो! अभी तुम्हें भी,
इन्हीं झोपड़ों में जलना है.
कल मंत्री जी को,
तुम्हारी अधजली-लाशों के बीच,
खड़े होकर,
गहरा खेद व्यक्त करना है.
एक दयावान सिपाही ने,
थोड़ी सहानुभूति जताई,
क्या करें भाई,
हम जानते हैं,
तुम्हें इस तरह जिन्दा जलाना,
मानवता के खिलाफ़ है.
पर यदि हम तुम्हें बख्शते हैं,
तो हमारा पत्ता साफ़ है,
भाई, माफ़ करना, मजबूरी है।
तुम्हें जिन्दा जलाना जरूरी है।

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