यार का ब्याह (एक हास्य कविता) Poem by Sushil Kumar

यार का ब्याह (एक हास्य कविता)

एक यार का ब्याह था किया हमें आमन्त्र।
चलो कुमार जरूर तुम, तुमहि पढोगे मन्त्र।
तुमहि पढोगे मन्त्र, बात ये हमें सुहाती।
हमहे घर के चार भये अब पांच बराती।
कह कुमार कविराय हमहुं ने हाँ कर दीनी।
आज मिलें पकवान रोज फाँकत हे चीनी।

बस स्टोपिज पर खड़े पांच बराती लोग।
घंटन से ठाड़े भये, रहे यातना भोग।
रहे यातना भोग, तई ट्रक पड़ो दिखाई।
हमने दई सलाह, इसी पे चढलो भाई।
कह कुमार कविराय, घरऊआ चढ़ गए आगे।
ट्रक भयो इसटाट, तई हम पीछे भागे।

नीचे से ऊपर तलक, भरा हुआ था रेत।
क्लीनर ने हमको दिया चढ़ने का संकेत।
चढ़ने का संकेत, बदन का बन गयो भुरता।
हपढ़-धपढ़ में चढ़े, फाड़ लयो आधो कुरता।
कह कुमार कविराय, चले हे बनकर नेता।
झटका खा गिर पड़े मुंह में भर गयो रेता।

थूकत-थूकत जब हमें, हो गयी काफी देर।
क्लीनर तब कहने लगा हमसे आँख तरेर।
हमसे आँख तरेर, निकालो तीन रुपैया।
हम बोले जब उतरेंगे दे देंगे भैया।
कह कुमार कविराय क्लीनर पड़ गया पीछे।
जाना हो तो देओ, नहीं तो उतरो नीचे।

धर दये दाम निकार के, आंतें लईं मसोस।
पास खड़े देहाती पर झाड़न लागे रोष।
झाडन लागे रोष, अबे क्या फूटीं तेरी।
धरा पैर पे पैर, अंगुलियाँ टूटी मेरी।
कह कुमार कविराय, बिचारो कांपन लागो।
हाथ जोरि के माफ़ी हमसे मांगन लागो।

होनहार बिरबान क़े होत चीकने पात।
ऐसी ही घटना घटी एक हमारे साथ।
एक हमारे साथ, ट्रक टकरा गयो भाई।
वा दिन पहली बार याद मैया की आयी।
कह कुमार कविराय, सूख गए प्राण हमारे।
डर से भीज गए, सब लत्ता नीचे वाले।

कुछ कुमरी का भाग था, कुछ था माँ का हाथ।
दोनों ने रक्षा करी, मिलकर क़े एक साथ।
मिलकर क़े एक साथ, चोट ज्यादा नहीं आयी।
बस ऊपर क़े चार दांत पर बीती भाई।
कह कुमार कवि, दुल्हे की एक फूट गयी ही।
दांयें हाथ की हड्डी, जड़ से टूट गयी ही।

जाने किसकी जेब से नोट गिरे एक ओर।
पा मौके को फायदा, हमने लाये बटोर।
हमने लाये बटोर, कौन फिर छीनन बारा।
पकड़ टेंटुआ फिर देहाती हमने मारा।
कह कुमार कविराय अबे ओ हट्टा-कट्टा।
नोट हमारे खींच रहा, उल्लू का पट्ठा।

राम-राम जपते रहे, धरे रहे मन धीर।
चुपके से हम फूट लए, जुडन लगी जब भीर।
जुडन लगी जब भीर, तई एक साब दहाड़े।
अरे कौन ले गयो कमरबंद क़े नोट हमारे।
कह कुमार कविराय, देहाती घिरा बिचारा।
सब क़े सब पिल पड़े, खूब जूतन से मारा।

कुमरी ने लिपटाय के कीन्हा हमको प्यार।
कुमार तुम तो लग रहे, कतई दलीप कुमार।
कतई दलीप कुमार, दांत बिन कैसे सुन्दर।
जैसे मगरमच्छ बिन सोभित होय समुन्दर।
कह कुमार कुमरी बोलीं, ये बचन अनूठे।
हाय दूध क़े दांत तुम्हारे, अब हैं टूटे।

हमने हुं आ क़े ताब में, धर दये सारे नोट।
कुमरी तब गिनने लगीं, कर घूंघट की ओट।
कर घूंघट की ओट, कहाँ से इतने लाये।
हम बोले, बारात करी ही, उसमे पाए।
कह कुमार, कुमरी बोलीं, ये बात करो तुम।
कविता लिखनी छोड़, रोज बारात करो तुम।
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Sunday, November 4, 2012
Topic(s) of this poem: hindi
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Sushil Kumar

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