मेट्रो का लेडीज कोच Poem by Kezia Kezia

मेट्रो का लेडीज कोच

Rating: 5.0

मेट्रो में सफ़र करते हुए

रोज़मर्रा की जद्दोजहद झेलते हुए

मेट्रो का लेडीज कोच

मानो मेरा पता हो गया

देखती हूँ वहाँ

महिला को महिला बनते हुए

किसी को लिपस्टिक लगाते हुए

किसी को लाली लगाते हुए

देखती हूँ किसी किसी को तो

सिन्दूर माँग में सजाते हुए

किसी को केश सँवारते हुए

किसी को दुप्पट्टा संभालते हुए

किसी को किताब पढ़ते हुए

किसी को किताब लिखते हुए

किसी को बतियाते हुए

किसी को लहराते हुए

किसी को गृहस्थी का

बोझ उठाते हुए

किसी को बेख़ौफ़

छलांग लगाते हुए

हाथ में मोबाइल फ़ोन पकडे

या गोद में बच्चे को जकड़े

अलग अलग उम्र की

अलग अलग परिवेश की

यहाँ सबकी कहानी

अलग अलग होती है

फिर भी सब सफ़र तो

एक साथ ही करती हैं

मैं भी इन्ही के साथ

सफ़र करती हूँ

मेट्रो के लेडीज कोच को

दूसरा घर समझती हूँ

***

COMMENTS OF THE POEM
Sharad Bhatia 28 September 2020

बेहतरीन रचना महिला सशक्तिकरण एवम " मेरा दूसरा घर" की बहुत प्यारी रचना संग - संग बैठ, एक दूसरे का हाल चाल जानती, ज़रा सी बात पर उसकी खातिर लड़ने के लिए आतुर हो जाती।। किसी को " बहन" तो किसी को " भाभी जी कहती, . बन घर (कोच) मे एक परिवार का हिस्सा सबके गिले शिकवे दूर कर जाती ।।

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M Asim Nehal 27 September 2020

Haan jahan waqt kate safar ka Usse bhi ek thikana samjha ja sakta hai Bahur khoob.

2 0 Reply
Varsha M 23 September 2020

Bahoob bhukhraya hai Ladies compartment ko Jo bhagam bhag me Na kabhi aapne aap ko bhoolti Aur nahi apne pariwar ko Chahe jo bhi ho jaye Kamzoor nahi hoti Nebhati sabkuch ko.

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Kezia Kezia 25 September 2020

thank u so much dear Varsha for liking my poetry

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