व्यर्थ का अभिमान Poem by Rakesh Sinha

व्यर्थ का अभिमान

Rating: 5.0

सब कहते हैं कि जीवन में अगर सफलता पानी हो,
तो अपने कामों का बढ़-चढ़ कर करो बखान,
ऐसा जताओ कि आप हो अत्यंत गुणवान और अति बुद्धिमान |
अपने कार्यक्षेत्र में आपकी निपुणता है जैसी,
शायद ही किसी और में होगी ऐसी |
पर अपने मुंह-मिट्ठू बनना कहां तक उचित है?
अपनी खामियों से तो हर कोई परिचित है |
कभी देखा है गुलाब को अपनी खुशबू के गीत गाते,
या इंद्रधनुष को अपने रंगों पर इतराते?
आज तो जिसे देखो अपनी ही पीठ थपथपा रहा है,
"मैंने ये किया, मैंने वो किया" का ढोल बजा रहा है |
ये अहंकार है हमारा जो सर चढ़के बोलता है,
उसके वशीभूत होकर इंसान मदमस्त डोलता है |
क्या कभी गांधी, मदर टेरेसा या अब्दुल कलाम ने किया अपना गुणगान?
जबकि सब जानते हैं कि थे वो कितने महान |
कवि रहीम ने भी कहा है:
"बड़े बड़ाई ना करें, बड़े न बोलें बोल,
रहिमन हीरा कब कहे, लाख टका मेरा मोल"
ईश्वर द्वारा संचालित इस प्रकृति में हम हैं
मात्र एक कण के समान,
अच्छा नहीं अपने छोटे-मोटे कार्यों पर करना इतना अभिमान |
खाली हाथ आए हैं और खाली हाथ ही जाना है
फिर किस बात पर आखिर इतना इतराना है?
दुनिया से वाहवाही पाने की चाह छोड़ो,
नाम और शोहरत के इस चक्रव्यूह को तोड़ो |
बस वक्त के साहिल की गीली रेत पर,
अपने अच्छे कर्मों की दास्तां लिखते रहो |
काम को पूजा के फूल समझ,
भगवान को अर्पित करते रहो |

Tuesday, August 23, 2016
Topic(s) of this poem: arrogance
COMMENTS OF THE POEM
M Asim Nehal 23 August 2016

Kya baat hai....मानव शरीर जिन तत्थ्यों से बना है उसमें अहंकार आना सुनिश्चित है परंतु वे लोग जो इसपर विजय प्राप्त कर लेते हैं वो सफल हो जाते हैं.10

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