५ः४६ अँधेरी लोकल
द्वारा अरुंधति सुब्रमण्यम
एक बाम्बे लोकल के
महिला कक्ष में
हम नहीं खोजते
कोई वैयक्तिक दिव्यदृष्टि ।
कठोर एसिटिलीन द्वारा चाटी गई धातु की तरह
हम गढ़े गए हैं-
सपने, आपदाएँ
जीवाणु, नियतियाँ,
मांस और ऑर्गैन्जा
गंध और अंडाशय
सहस्त्र अंगों वाली
करोड़ों जिह्वाओं वाली, बहुपतिका पहियों पर काली ।
ज्यों ही मैं नीचे उतरती हूँ
मैं चुन सकती थी
गाजरों को टुकड़ों में काटना
या कि एक प्रेमी
मैं बाद वाले को मुल्तवी करती हूँ।