7 बरस मे नींद से जागे..... Poem by Sujeet Kumar Vishwakarma

7 बरस मे नींद से जागे.....

7 बरस मे नींद से जागे.....
सात बरस मे नींद से जागे, जाने कैसी नींद मिली थी,
सब देखा सब समझा लेकिन, कलम की धारा नहीं खुली थी ।

अब भी शायद गांठ ज़हन की, खुली नहीं है, हिली नहीं है...

कई साल तक शांत रहने के बाद, आज अचानक लगा किसी पुराने कवि की आत्मा फिर मेरे ज़हन के दरवाजे पर दस्तक देने लगी थी, कि कई बार माना करने के बाद, झाँका तो दिखा वो कुछ बोले बिना जाने को राज़ी नहीं था। बुलाया बिठाया बात पूछी तो पता चला कि उनकी ज़ुबान बोलने वालों कि संख्या बड़ी तेज़ी से कम हो रही है, और लोग उस माधुर्य और गहराई को खोते जा रहे हैं, जो कभी हिन्दी साहित्य मे होती थी। मैंने उनसे माफी भी मांगी क्यूंकी शायद उनका इशारा सबके साथ साथ मेरी ओर भी था। मैंने उनसे पूछा क्या लिखूँ, कि आप मुझे दोषी न बनाएँ, तो उनका जवाब कुछ यूं आया।

अब मोल पानी का खून से, धुएँ का साफ हवा से,
हमने खुद ही बढ़ा रखा है।
समझ बूझ सरलता और सौम्यता को किनारे कर,
उन्माद को सिर चढ़ा रखा है।।

आज़ादी का पर्याय, बदज़ुबानी, बदसूलूकी है,
और निर्मलता को किनारे खड़ा रखा है।
स्वछंदता और स्वतन्त्रता कि परिभाषाएँ भूल कर,
ज़िद को इनका पर्याय बना रखा है।

खुशियों का पर्याय जहां परिवार को माना जाता था,
और सफलता का अनुमान इज्ज़त से आँका जाता था।
वो अपना ही अलग दौर था, हमारे लिए शायद वही ठीक था,
जब सही और सुलझा निर्णय करने वाला निर्भीक था।

अब परिवारों कि सफलता कि परिभाषाएँ बादल गयी है,
पेड़ से डाली खुद ही कटकर, जमकर आगे निकाल गयी है।
खुशियों कि परिभाषा बदली, खर्च शोर शराबे वाली,
रंग बिना होली अब है और बिना पटाखे आए दिवाली ।।

कुछ तो है जो ठीक नहीं है, क्या तुम देख नहीं पाते हो,
नींद भला कैसे आती है, कैसे खुद को फुसलाते हो..............?

मेरी वाणी को जैसे विराम सा लग गया....

काफी सोचने के बाद बस इतना कह पाया,

जिन प्रश्नो के उत्तर मुझसे, पूछ रहे हैं आप यहाँ पर,
उनका उत्तर खोजना व्यर्थ है।
परिभाषाएँ सब बादल चुकी है, हर शब्द के,
इस युग मे अलग अर्थ हैं।

खून गरीब का हो, तो अमीर के खरीदे पानी से सस्ता ही होगा,
कीमत पैसे कि ताक़त से आँकी जाने लगी है।
पैसे के धनी लोगों कि बनाई सामाजिक व्यवस्था मे,
चरित्र और स्वभाव कि बगलें झांकी जाने लगी हैं।

खुशियाँ बियर मे, क्लब मे, तेज़ चलती गाड़ियों, और शोर मे हैं,
शांति, एकांत को बस अवसाद और उदासी के लिए जाना जाता है।
परिवारों कि सफलता का पर्याय बच्चों की बड़ी नौकरी और,
बड़े शहर मे अलग फ्लैट ले लेने मे माना जाता है ।।

आप नींद कि क्यूँ पूछते है, वो ज़माना लद गया जब,
नींद आत्म मंथन, भविष्य, और खुशियों कि तयारी के लिए ली जाती थी ।
अब नींद बस थके हुए शरीर और पके हुए दिमाग को,
एक दिन और, वर्तमान को सहन करने कि क्षमता देने के लिए ली जाती है।

मैं नहीं फुसलाता खुद को नींद के लिए, शरीर खुद निढाल हो कर,
बिस्तर पर गिर जाता है और दिमाग खुद राहत मांगता है।
आँखें जलती हुई सोती है, और जलती हुई ही जग उठती हैं,
और शरीर हर सवेरे फिर से न पूरी होने वाली नींद मांगता है।

मैं जानता हूँ ये जो भी है, ये अलग है, शायद गलत भी है,
मगर सोच तो सिर्फ परिवर्तन कि शुरुआत होती है।
बदलाव तो तब आता है जब बदलाव को आतुर,
सोच की कर्मठ बदलाव के कदमो से मुलाकात होती है।
- - सुजीत विश्वकर्मा

Tuesday, October 17, 2017
Topic(s) of this poem: classicism,hindi,perception,self discovery
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
an old time poet visits in dream and asks about the present, and why it is the way it is, and i respond to the questions accordingly.
COMMENTS OF THE POEM
Kumarmani Mahakul 17 October 2017

All looked at everything but, the section of the pen was not open. Now with the blood of water and clean air of smoke wonderful imagery is drawn. Freedom matters a lot. But this poem provokes thought. Brilliant perception is presented...10

1 0 Reply

thank your sir.. request you to see through other poems too.. would love to see your response on them..

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