इल्जाम न आए कोई Poem by dhirajkumar taksande

इल्जाम न आए कोई

जाम चढाये कितना, अंजाम न आए कोई
होश बढाये कितना पैगाम न आए कोई
जुस्तजु हो गयी मजार दिले- बेकसी की
एक ताज और बनाता, मकाम न आए कोई

लीखे कैसे, कोरा कागज हो गया मैला
एक राज और सुनाता गुमनाम न आये कोई

बेसूद हो जहा अपने, बेगानो से झुठी आशा
ढो रहा है जनाजा अकेले ही, अवाम न आये कोई

आखे वो बुझ गयी जीस का नुर बनता
तमाशा दिखाकर भी जहा से सलाम न आये कोई

जलु भी तो कैसे शम्मा बुझ रही है
बस दिल चुराने का मुझ पे इल्जाम न आए कोई

Wednesday, January 7, 2015
Topic(s) of this poem: human condition
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