खेल समय का Poem by Ghanshyam Chandra Gupta

खेल समय का

खेल समय का खट्टी-मीठी बातें सभी भुला जाये
जैसे झरने के पानी में नीलाकाश घुला जाये

लोरी गाकर, थपकी देकर, आँचल से माथा छूकर
मां की याद स्वर्ग से आकर मीठी नींद सुला जाये

आशंकाओं से परिवेशित चिन्तन की सीमा को लांघ
अस्वीकृति देकर कुण्ठा को, यारो आज खुला जाये

कैसा ही हो सिद्ध-सयाना, कुछ तो क्षति उसकी होगी
काजल भरी कोठरी में जो कोई दूध धुला जाये

लीलाधर के इन्द्र-धनुष को नभ पर देखा झूले सा
तो चाहा लीलाधर अपने हाथों मुझे झुला जाये

Tuesday, December 26, 2017
Topic(s) of this poem: mystical philosophy
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