उपलब्धि और निवृत्ति Poem by Ghanshyam Chandra Gupta

उपलब्धि और निवृत्ति

उपलब्धि और निवृत्ति

जो भी, जैसा भी, जितना भी
दोनों बांहों के घेरे में आ समाया
उसी से सम्पन्न,
वैसे से ही संतुष्ट
उतने से ही परिपूर्ण
मैंने उसे यथाशक्ति जकड़ लिया
अपनी बाहों के शिथिल बंधन में
छूटना चाहे तो छुट जाय
उसकी मुक्ति, मेरी मुक्ति

और जो रह गया परिधि के बाहर
सीमा से परे
क्षितिज के उस पार
अलभ्य, अग्राह्य, अप्राप्य
उसके लिये स्वीकार है
अन्ततोगत्वा मरण
उपलब्धि के लिये नहीं
निवृत्ति के लिये

-घनश्याम, १४ फरवरी, २००९

Tuesday, January 1, 2019
Topic(s) of this poem: philosophy
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