हम किसी के भी अपने बन Poem by Dr. Navin Kumar Upadhyay

हम किसी के भी अपने बन

हम किसी के भी अपने बन न सके
, गुनाहों की सौगात कर बैठे,
अब आ ही गया जब सागर सामने
, तब दुनिया के जज्बात भी सिमटे।

Tuesday, November 28, 2017
Topic(s) of this poem: love
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