अरे मैं तो था उन कश्तीयों में, झूठ से भरी बस्तियों में
साथ मेरे क्या धरा था, मैं तो पूरा सच खड़ा था ॥(2) ॥
दुनिया साँची मैं ही झूठा, मुझसे ही मेरा मन था रूठा
अपनों से क्यों साथ छूठा, कर दिया क्या काम अनूठा
कह गया मेरा मन था टूटा, पर मेरा नहीं कोई बटुठा
पर मगर यूं ध्यान आया, साथ मैं मेरे क्या था लाया
अरे मैं तो था उन कश्तीयों में, झूठ से भरी बस्तियों में
साथ मेरे क्या धरा था, मैं तो पूरा सच खड़ा था
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कोई संवेदनशील व्यक्ति ही जीवन में मिलने वाली धूप छाँव को यथावत स्वीकार कर सकता है, बिना प्रतिरोध किये. बहुत सुंदर रचना. धन्यवाद.