Gazal 2 Poem by Ambarish Srivastava

Gazal 2

ग़ज़ल 2

मुफाईलुन मुफाईलुन फऊलन
1222 1222 122
(बहरे हजज़ मुसद्दस महजूफ अल)

अदब तहजीब औ सादा कहन है
सलीका शायरी में मन मगन है

ये फैशन हाय रे जीने न देगा
कई कपड़ों में भी नंगा बदन है

हुई है दिल्लगी बेशक हमीं से
कभी रोशन था उजड़ा जो चमन है

अँधेरे के लिए शमआ जलाये
ज़हीनी बज्म में गंगोजमन है

नज़र दुश्मन की ठहरेगी कहाँ अब
बँधा सर पे हमेशा जो कफ़न है

उगे हैं फूल मिट्टी है महकती
यहाँ पर यार जो मेरा दफ़न है

तुम्हारे हुस्न में फितरत गज़ब की
तभी चितवन में 'अम्बर' बांकपन है

-अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर'

Sunday, November 25, 2012
Topic(s) of this poem: nature love
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