मैं ही अवाम, जनसैलाब Poem by Deepak Vohra

मैं ही अवाम, जनसैलाब

मैं ही अवाम - जनसैलाब
मैं ही हुजूम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
क्या आपको मालूम है कि
दुनिया के श्रेष्ठ काम मेरे द्वारा हुए हैं?

मैं ही मज़दूर, मैं ही अन्वेषक
दुनिया के रोटी कपड़े का मूजिद2
मैं ही तमाशबीन
इतिहास का शाहिद।

नेपोलियन और लिंकन हममें से ही हुए हैं
वो इस दुनिया से रुख़सत हुए,
और ज्यादा नेपोलियन-लिंकन मुझसे ही पैदा हुए हैं।

मैं ही क्यारी।
मैं ही घास का मैदान-
जोते जाने के लिए खड़ा तैयार
भूल जाता हूं मैं
गुजरते हैं मेरे ऊपर से
कितने भयानक तूफ़ान ।

छीन ली जाती हैं मुझसे
बेहतरीन चीज़ें
और तबाह कर दी जाती हैं
फिर भी भूल जाता हूं मैं।

मौत के सिवाय हर चीज़ मुझे मिलती है
जो मुझसे काम करवाती है
और छीन लेती है
जो कुछ मेरे पास होता है
और मैं भूल जाता हूं ।

कभी कभी मैं दहाड़ता हूं
खुद को झिंझोड़ता हूं
और लाल लाल बूंदें बिखेरता हूं
ताकि इतिहास याद रखा जाए
फिर भूल जाता हूं सबकुछ ।

अगर हम लोग
याद रखना सीख लें,
अगर हम लोग
बीते हुए कल से सबक़ लें,
और यह कभी न भूलें
पिछले साल लूटा किसने
किसने बेवकूफ़ बनाया मुझे

तब दुनिया का कोई भी जुमलेबाज
अपनी ज़ुबान पर नहीं ला पायेगा लफ़्ज़
‘अवाम'
उसकी आवाज़ में नहीं होगी खिल्ली
या उपहास की कुटिल मुस्कान।


तब उठ खड़ा होगा जनसैलाब,
अवाम - ख़ल्क़-ए-ख़ुदा।

POET'S NOTES ABOUT THE POEM
It's one of the best poems written by Carl Sandburg. Carl Sandburg is not only an American poet but his poems have universal appeal.
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