Bekhabar Poem by Mayank jain

Bekhabar

बेख़बर

बेख़बर सा रहता हूँ कुछ समझ नहीं आता
इस दुनियादारी से ना जाने क्यूँ लुका छुपी खेलता हूँ
दिमाग़ भी मेरा घड़ी के काँटों की तरह सा हो गया है
एक तो कभी रुकता नहि और तो और घूम के वापस उसी जगह आता है

बेख़बर सा रहता हूँ कुछ समझ नहीं आता
समाज की इस तस्वीर में ना जाने क्यूँ अपने आप को देख नहीं पता
सबसे जुड़ कर भी में क्यूँ अपने आप को अकेला हूँ पता
ठहरी सी लगती है ये ज़िंदगी कभी कभी, होश में हूँ या बेहोश समझ नहीं आता

बेख़बर सा रहता हूँ कुछ समझ नहीं आता
ज़िंदगी की इस दौड़ का मुझे मक़सद समझ नहीं आता
इस भेड़ चाल को देख ना जाने क्यूँ मेरा दिल है घबराता
क्या ढुंढ रहा हूँ कोई मुझे इतना बस बता दे
उस मंज़िल को पाने की चाह कोई जगा दे

बेख़बर सा रहता हूँ कुछ समझ नहीं आता
दिशाएँ तो पता है पर अपने आप को दिशाहीन महसूस करता हूँ
ऐहसास है मुझे अपनी कमियों का उन्हें सुधारने की कोशिश में रहता हूँ
अपनी ज़िंदगी को सवारने की हर ख़्वाहिश में रखता हूँ

पर ना जाने क्यूँ ये आलम मेरी ज़िंदगी से नहीं जाता
बेख़बर सा रहता हूँ कुछ समझ नहीं आता।

Monday, March 6, 2017
Topic(s) of this poem: dilemma
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