A-290 एक मुसाफ़िर Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-290 एक मुसाफ़िर

Rating: 5.0

A-290 एक मुसाफ़िर 22.6.17-6.52 AM

एक मुसाफ़िर की नज़र में बता दे तू कौन है
खुदा है ज़मीं है हलचल है या कि
तू मौन है

हम समझ नहीं पाए तेरा ये करिश्मा
एक ही सवाल पूछते रहे की
तू कौन है

हमने तुमको देखा ग़रीबी की आहट में
जब उसके मुख से निकले
तू ही सिरमौर है

हमने देखा है तुमको भूखों की तड़प में
एक नवाला मिल जाये
तो हँसी मौज है

तुमको देखा है मरीज़ों की तड़प में
एक बार तू चला आए
तो ज़िन्दगी कुछ और है

देखा है तुम्हें वेश्याओं के कोठे पे
थोड़ा नज़राना मिल जाए
तो क़ाबिले ग़ौर है

भटके हुए राही भी इंतज़ार करते है
पकड़ ले ऊँगली कोई
वही करता ग़ौर है

बादशाही में भी झलक मिलती है
मिल जाए थोड़ा और तो
भाव विभोर है

Poet: Amrit Pal Singh Gogia "Pali"

A-290 एक मुसाफ़िर
Saturday, June 24, 2017
Topic(s) of this poem: nature,relationships
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 24 June 2017

मनुष्य, प्रकृति और सृष्टि में वह कौन सा तत्व है जो इन सबको जोड़ता है. अनंतकाल से हम उसकी तलाश कर रहे हैं. यह कविता भी उसी तलाश की एक कड़ी है. बहुत सुंदर पेशकश.

1 0 Reply

Thank you so much Rajnish Manga Ji for you wonderful feedback and comments. Gogia

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