A-251 मेरा रक़ीब Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-251 मेरा रक़ीब

A-251 मेरा रक़ीब 13.3.17-7.00 AM

मुझे मेरे रक़ीब से प्यार हो गया
महबूबा मेरी का वो यार हो गया
ख़ुशबू उससे भी मुझे आने लगी
मेरे प्यार एक इश्तिहार हो गया

जब भी मिलूँ एक ज़िक्र होता है
उस ज़िक्र में एक फ़िक्र होता है
फ़िक्र भी ऐसा जो फ़िक्र नहीं है
फिर भी फ़िक्र का ज़िक्र होता है

बड़ा मासूम है मेरा मासूम रक़ीब
हर बात दिल की मुझे पिरोता है
उसके हर पल की ख़बर होती है
मुझे भी उसका ही फ़िक्र होता है

जब आता है नयी ख़बर लाता है
हर बार उसकी ही बात सुनाता है
बहुत सुकून होता है उस ख़बर में
जैसे मुसकुराता है और बताता है

बड़ा अपना सा लगने लगा है मुझे
कभी कभी भ्रम भी चला आता है
क्या वाक़ई प्यार करने लगा हूँ मैं
या कि मेरे यार की ख़बर लाता है

उस ख़बर में उसकी तस्वीर होती है
हर ज़र्रे में मोहब्बत की हीर होती है
मेरी हीर को सलामत रखना खुदा
क्यों कि हीर में तेरी तस्वीर होती है

तस्वीर मुकम्मल हो बहुत ज़रूरी है
तस्वीर की भी अपनी ही मजबूरी है
तस्वीर अधूरी किसी काम की नहीं
तस्वीर पूरी हो तो भटकन गरूरी है

भटकन ने खो दिया अपनी हीर को
क्यों दोष देता है अपनी तकदीर को
नज़र मार कर देख अपने जमीर को
मिल जायेगा दर्द जो दिया हीर को

वो आज भी तुम्हारी है रुख बदला है
उसने केवल अपना चलन बदला है
उसकी भी कोई मज़बूरी रही होगी
तभी तो उसने केवल कवच बदला है
Poet: Amrit Pal Singh Gogia ‘Pali'

A-251 मेरा रक़ीब
Monday, March 13, 2017
Topic(s) of this poem: love and friendship,relationship
COMMENTS OF THE POEM
Savita Tyagi 06 May 2017

Very nice including the two bird sketch.

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Thanks again for inspiring me! Gogia

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