A-038. अजी सुनते हो! Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-038. अजी सुनते हो!

Rating: 5.0

अजी सुनते हो! 18.6.16—7.00 AM

अजी सुनते हो!
कहाँ सुनते हो
बोल बोल के थक गयी हूँ
अापके कानों पार् जूं तक नहीं रेंगती
खाक सुनते हो
बोलती मै कुछ और हूँ
सुनते कुछ और हो
फिर झगड़ा भी करते हो
कि मैने यह नहीं कहा
वह कहा था

मैं जानता हूँ!
कि आखिर तुम क्या कहना चाहती हो
तुम कुछ भी बोलो
मुझे पहले से पता है
कि तेरे कहने का मतलब क्या है
तुम मुझे उल्लू नहीं बना सकती
तुम्हारे साथ जिंदगी गुजारी है मैने
मैन अपने बाल धूप में सफेद नहीं किए हैं

हाँ बोलो अब क्या कहना चाहती हो
अब बोलो भी सही
या अब मौन व्रत रखने का इरादा है
मुझे पता है अब तू क्या कहने वाली है
अाँखों में वही पुराने अाँसू
थोड़ी देर मौन व्रत फिर
वही राम कहानी

हाँ हाँ मै तो पागल हो गयी हूँ
कुछ भी बोले चली जाऊँगी
तुम मुझे बहुत तांग करने लगे हो
मै मायके चली जाऊँगी
भाई को सब कुछ बताऊँगी
कि तुम मेरी अब बिल्कुल भी नहीं सुनते हो
तुम्हारी जिंदगी में जरूर कोई और अा गयी है

हे भगवान!
तुम्हारा दिमाग भी कहां से कहां चलता है
अच्छा बाबा मुझे माफ कर दो
ये कान पकड़े

मै तो सिर्फ इतना कहना चाहती थी
और मै अापको बहुत प्यार करती हूँ
लेकिन अाप हो कि सुनते ही नहीं हो
……. अाप हो कि सुनते ही नहीं हो!

Poet: Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'

A-038. अजी सुनते हो!
Friday, June 17, 2016
Topic(s) of this poem: romantic,old age
COMMENTS OF THE POEM
M Asim Nehal 18 June 2016

Kya baat hai.....is ladia mein bhi pyar jhalak raha hai....

0 0 Reply
Rajnish Manga 17 June 2016

प्यार की बात भी बिना नोक-झोंक अगर की तो क्या की. बहुत रोचक रचना है.

1 0 Reply

Thanks again for sharing your feeling with me.

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