राहगीर Poem by Alok Agarwal

राहगीर

टींबुक टू भाई टींबुक टू,
जाता कहाँ है किधर को तू,
मंज़िल तेरी दूर बहुत है,
उगता सूरज करता तुझे नमन है/

सफ़र ये तेरा आसान नही,
हैं इन राहों में काँटे अनेक,
करता है एक गुलाब तेरा इंतेज़ार,
जिसकी मादक खुसबू करेगी तुझे बेकरार/

इस सफ़र में तू अकेला नही है,
मिलेंगे इन राहों में अजनबी बहुत,
सताएगी याद इनकी तुझे कब तक,
कोइ नही रहेगा तेरे लिए कल तक/

खेलना नही तुम कभी अपनो के दिल से,
तोड़ना नही तुम किसी के प्यार को,
है कीमत इन कच्चे धागों की बहुत,
तोलना नही इनको कभी सोने के तराजू में /

गुलाब तो एक दिन मुरझा जाएगा,
अगर तू रुकेगा, तो आगे कौन बढ़ेगा,
देंगे अंत में काँटे ही तेरा साथ,
छोड़ दे इनसे दुश्मनी और मिला ले अपना हाथ/

इन रेतीले बंधनों को तोड़ दे तू,
समुंदर का रुख़ मोड़ दे तू,
टुकड़े-टुकड़े कर दे चट्टानो के,
लोहा ले ले तू इन तूफ़ानो से/

अरे ओ,
मेरे दूर के मुसाफिर,
मंज़िल तेरी सामने खड़ी है,
और पग ये तेरे लड़खड़ाते हैं,
हो गया कुर्बान ज़िंदगी की दौड़ में एक और सिपाही/

दुनिया रखती है याद उसको जो जीतता है,
भूल जाते हैं लोग की सितारा भी कभी टूटता है/

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