उत्तुंग विराट है महिमा जिसकी, पतितपावनी गंगा महान।
वर्णन करने को वैभव उसका, है प्रयत्नशील यह अल्पज्ञान।।
भगीरथ के तप का यशफल, शंकर की जटा का ले अवलम्बन।
स्वर्ग से उतरी धर्मधरा पर, भरने प्राणी जीवन में स्पंदन।।
पर्वत हैं इसके क्रीड़ास्थल, मैदानों में सुन्दर सहज सरल।
धर कर मुद्रा गंभीर गहन, करती पावन सागर सकल।।
ऋषियों के घ्यान मनन का दर्पण, प्रथम सभ्यता का यह उद्गम।
ऐश्वर्य का वाहन निर्विवाद, सत्य-सौन्दर्य-शुचिता का संगम।।
साक्षी है संस्कृति के उद्भव की, भारत का गौरव-गीत है।
होंगे तट पर पुन्यस्थल अगणित, माँ गंगा स्वयं महातीर्थ है।।
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