वह किवदंती मुस्काती थी।
मुख-कमल पे कँवल दो शोभ रहे,
और स्निग्ध अधर का क्या कहना?
दे झलक चंद क्षण की खातिर,
वह मादकता बरसाती थी।
वह किवदंती मुस्काती थी।
था सरस्वती सा मुखमंडल,
औ' रजत-स्वर्ण के आभूषण।
गंगा की थी तनया निर्मल,
शुचित्व की धार बहाती थी।
वह किवदंती मुस्काती थी।
वह लाजवन्ती कतराई सी,
वह मादकता मधुराई सी,
स्मिता अधरपर पर यूँ लाकर,
उर-उच्छृंखल उकसाती थी।
वह किवदंती मुस्काती थी।
~ पं० सुमित शर्मा "पीयूष"
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