मंझिले Poem by Sandhya Jane

मंझिले

सालों के उम्मीदों को,
दिल के अरमानों को,
लेकर चला मंज्ञिलों को...

अब सामने वो खड़ी थी...
मगर नज़र उसकी पराई थी,
आँखो में दुसरे की परछाईं थी,
एहसासों में किसी की ख़ुशबु थी...

मुस्कुरा कर मैं ने कहा -
चलता हुँ मैं और
तु ख़याल रखना यहाँ

सपने छुटे, उम्मीदें टूटे,
जब होश आया,
कहीं से कानों शब्द पड़े -
तु चला पाने अपनी मंज्ञिलों को,
तक़दीर हुँ मैं, जिसने,
लिखी हैं तेरी मंज्ञिलों को...

तक़दीर और ख़्वाईश मैं
काफ़ी है अंतर है दोस्त...
तु ने सिर्फ़ अपनी ही सोची,
मैं ने तो अपनौं की भी सोची...
ये ही हैं नई मंज्ञिल तेरी,
कर्म में अब तक़दीर हैं तेरी...

ढूँढ ले उन कर्मों की लकीरें
जिससे से बुनी हैं तेरी तक़दीरें
अब बढ नई मंज्ञिल की ओर,
लिखकर नया मुक़दर
भुल जा बिती पुरानी,
लिख ले अब नई कहानी...

- Sandhya

Thursday, July 7, 2016
Topic(s) of this poem: destiny,life,love,love and life
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 12 March 2020

तु ने सिर्फ़ अपनी ही सोची, मैं ने तो अपनौं की भी सोची..... //.... इंसानी रिश्तों की पड़ताल करती एक सुंदर रचना.

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