बदनाम Poem by Sanjeet Pathak

बदनाम

नाम तो अपना तब भी नहीं था,
जब शरीफों में गिनती थी,
अब ‘आशिकी' पाली है साहिब तो,
कम से कम बदनाम तो हुए.
सुना था बिकती है हर चीज़
यहाँ ग़र कीमत सही हो...
जो बेचा खुद को तो सामान तो हुए.
रखा छुपा कर अब तक पर्दे में ‘पाठक'
बेपर्दा सही कम से कम सरेआम तो हुए.
तनहा रहे तब भी जब भीड़ में थे,
भीड़ से हट कर सही वीरान तो हुए.
नफ़रत रकीबी से लहू में बसी हुई थी,
गले लगा कर रकीबों को,
शौक से लहूलुहान तो हुए.
गिरते रहे, उठते रहे, चलते रहे...
गिर कर, संभल कर आज,
ज़मीं से आसमान तो हुए.

Sunday, April 24, 2016
Topic(s) of this poem: heartbreak,love
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success