ऑक्टोपस
मज़हब का ऑक्टोपस
पकड़ लेता है फ़र्द को
उस के बाज़ू फैल जाते हैं
हर मसाम हर उज़्व पर
ये हावी हो जाता है
हर हर साँस पर
इफ़रीत बन कर निगल लेता है
जज़्बात के रेशमी थानों को
मसल कर रख देता है
दिल-सोख़्ता की हर ख़्वाहिश को
सिलें रख देता है दिल-ए-नाज़ुक पर
ऊपर से नीचे तक
बे-शुमार बे-हिसाब
जो मचले शिकार उस का
और सख़्त हो जाती है
गिरफ़्त उस की
ज़रा सी कुशादगी भी नहीं भाती उस को
मोहब्बत की सादगी
कहाँ पसंद आती है उस को
उस की क़ुमची हर वक़्त बरसने को तय्यार है
जज़्बात के खेल में
फ़र्द का एहसास
क्यूँ है क़ाबिल-ए-एतराज़
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کوئ عقیدہ انسان دشمنی کی تعلیم نہیں دیتا یہ تو اسکے ماننے والے ہیں جو اپنے مقاصد کے حصول کے لیے اسکو کچھ کا کچھ بنا دیتے ہیں
نظم انسان دشمنی پہ مبنی نہیں ہے یہ تو انسانی جذبات اور آحساسات کی نمائندہ ہے مذہب یہاں استعارہ کے طور پہ استعمال ہوا پے
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Is chhoti si nazm me mazhabi junoon rakhne wale logon ki fitrat ka pardafaash kiya gaya hai. Kash aise logon ko insaniyat ka sabak padhaya ja sakta. Bahut khoob. Thanks. मज़हब का ऑक्टोपस /....निगल लेता है / जज़्बात के रेशमी थानों को मसल कर रख देता है / दिल-सोख़्ता की हर ख़्वाहिश को उस की क़ुमची हर वक़्त बरसने को तय्यार है / जज़्बात के खेल में