बेपर्दा ख़्वाब । Poem by Ritika Abigail

बेपर्दा ख़्वाब ।

आज सुबह ज़रा कुछ देर से आँख खुली
बालकनी में चाय का कप थामें जब पहुँची
देखा की बग़ीचे में नये गुलाब खिले थे
ज़रा बहन को आवाज़ दी
और कहा, ऐसा लग रहा है
जैसे बग़ीचा मुस्कुरा रहा है,
कुछ क्षण भी ना रुकी बहन मेरी
एक बात कहने में
बोली बग़ीचा तो ख़ुशमिज़ाज होगा ही,
इतने फूल जो खिले है
पर पहले आप ये बताओ,
आपको सपनों में कौन मिले थे?
सोते हुए बड़ा मुस्कुरा रही थी आप
चेहरे पे सुर्खी, मंद मंद एहसास
जवाब कुछ दे ना सकी, राज़ कुछ छुपते नहीं
अख़बार उठा कर मैं दूसरे कमरे में चली गयी
आज से ये याद रखना है
चेहरा ठाक कर सोना ही सोना होगा
बंद आँखें भी मेरी राज बेपर्दा कर रही
सीख आज कुछ ये है मिली ।।।
#RA

Monday, June 16, 2014
Topic(s) of this poem: hindi
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