प्रेम Poem by Vishnu Pandit

प्रेम

न ईश, आदि, अन्तः, धरा का स्वामी,
गोकुल का मुरलीधर तोह बस एक व्याकुल प्रेमी.

वृक्ष ओट से दृष्टि उसकी थिरक रही सरपट,
खोज रही बस हृदयमोहिनी को वोह जमाना तट.

बंसी ले एक नाम का सुर पिरोता जाता था;
देख आभा मनु पुत्री की ब्रह्म भूलता जाता था.

ले श्रृष्टि का भार, समय का निर्धारण करे जो,
आकर्षण में आकर्षित करने को नाना स्वांग भरे वोह.

मन के सागर मंथन में चाह एक ही वोह आये,
प्रेम मिलन अब नंदलाल का राधा से हो जाये.

पर अधिकारों के रण में लाये थे पग अब खींच,
किया संघार कर्म जानकार अपनी मुट्ठी भींच.

कर्तव्यों के भालों ने आज किया वोह भंग,
मोह उस अटल प्रेम का जो था राधा संग.

जब जब चले शस्त्र उसके और सुदर्शन गाता था,
चक्रव्ह्यु में फंसा प्रेम तब तब लहू बहता था.

आठ रानियों संग द्वारिकाधीश वोह कहलाया,
प्रेम सत् राधा का उसने क्षणमात्र ही पाया.

रह गया मानव वोह, देव गिरिधर आधा;
है रण विजयी , युग पुरुष पर बिन राधा.

मायापति, मायाधर, दिव्य तत्त्व सार;
रहा वंचित प्रेम से स्मरण रहे विचार.

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Vishnu Pandit

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Nanital, India
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